मुंबई : तृप्ति डिमरी जल्द ही सिद्धांत चतुर्वेदी के साथ ‘धड़क 2’ में नजर आएंगी। हाल ही में उन्होंने खुलासा किया कि वो मधुबाला या मीना कुमारी जैसी आइकॉनिक शख्सियतों की बायोपिक करना चाहती हैं। अमर उजाला डिजिटल के साथ बातचीत में अभिनेत्री ने यह भी बताया कि ‘लैला मजनू’ की असफलता ने उन्हें निराश किया था, लेकिन ‘बुलबुल’ की सफलता ने उनका आत्मविश्वास दोबारा लौटा दिया। 

‘धड़क 2’ को लेकर आप कितनी उत्साहित हैं? क्या सीक्वल फिल्म में काम करने का अलग प्रेशर होता है?

मैं बहुत उत्साहित हूं, क्योंकि यह फिल्म मेरे दिल के बहुत करीब है। सीक्वल में काम करना अपने आप में एक अलग अनुभव होता है, लेकिन मेरे हिसाब से प्रेशर लेना या न लेना, ये पूरी तरह व्यक्ति पर निर्भर करता है। मैं दबाव नहीं लेती। मेरा मानना है कि जब आप दबाव में काम करते हैं, तो चीजें बिगड़ने लगती हैं। असली जादू तब होता है जब आप बिना किसी दबाव के पूरी ईमानदारी से और अपने डायरेक्टर व टीम पर भरोसा रखते हुए काम करें। शूटिंग के दौरान हमने हर दिन को सहजता से लिया, एक-दूसरे पर भरोसा रखा और दिल से काम किया। शायद इसी वजह से स्क्रीन पर भी सब कुछ दिल से जुड़ा हुआ लगता है।

डायरेक्टर शाजिया इकबाल के साथ आपका जुड़ाव कैसे हुआ?

करण जौहर सर का कॉल आया और उन्होंने कहा कि एक बेहद टैलेंटेड डायरेक्टर हैं शाजिया इकबाल। इन्होंने ‘बेबाक’ नाम की शानदार शॉर्ट फिल्म बनाई है। उन्होंने मुझसे कहा कि पहले वो फिल्म देखो, फिर शाजिया तुमसे मिलेंगी। फिल्म देखने के बाद मैं बहुत इंप्रेस हुई और अगले दिन ही शाजिया और राइटर राहुल से मिली। उनकी नरेशन इतनी दिलचस्प थी कि बातचीत खत्म होने के बाद भी हम किरदारों पर चर्चा करते रह गए। कनेक्शन वहीं से हो गया।

आपके दिल में कौन-सा रोल करने की तमन्ना है? कोई ऐसा सपना जो आप पर्दे पर जीना चाहती हों?

ऐसे बहुत सारे रोल हैं जो मैं करना चाहती हूं। लेकिन अगर खास तौर पर कहूं तो मुझे अब एक्शन करना है। अभी तक कभी एक्शन नहीं किया और मुझे लगता है कि वो एक ऐसा जॉनर है जिसमें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। आप अपनी बॉडी का इस्तेमाल करते हैं, फाइट सीक्वेंस होते हैं। उस जोन में काम करना फिजिकली और मेंटली दोनों तरह से डिमांडिंग होता है।

आज के दौर में ग्रे और निगेटिव किरदारों को खूब सराहा जाता है। क्या ऐसे रोल एक एक्टर को खुद को साबित करने का ज्यादा मौका देते हैं?

काजोल मैम ने गुप्त में कमाल का काम किया था। अगर उस तरह का कोई रोल मिले, तो मैं जरूर करना चाहूंगी। अब वो जमाना नहीं रहा जब निगेटिव रोल्स को सिर्फ विलेन समझा जाता था। आज के दौर में अगर आप एक ग्रे या निगेटिव कैरेक्टर को गहराई और सच्चाई के साथ निभाते हैं, तो ऑडियंस उसे अलग तरह से तारीफ  करते हैं।

क्या कोई बायोपिक करने की भी ख्वाहिश है?

बहुत, मैं बायोपिक जरूर करना चाहती हूं। मैं मीना कुमारी जी और मधुबाला जी की बहुत बड़ी फैन हूं। अगर उनकी जिंदगी पर कोई बायोपिक बन रही हो और मुझे उसमें मौका मिले, तो वो मेरे लिए किसी सपने के सच होने जैसा होगा।

आपने कॉलेज स्टूडेंट का रोल निभाया। क्या शूटिंग के दौरान कोई पल आपको अपने कॉलेज के दिनों की याद दिला गया?

कई बार,जब हम क्लासरूम में शूट कर रहे थे, तो ऐसा लगता था कि सच में कॉलेज में बैठे हैं। हमें डायरी मिलती थी, हम क्लासरूम में बैठते थे और वो सारे पुराने गेम्स खेलने लगते थे जैसे नेम प्लेस, एनिमल, थिंग - जो हम बचपन में खेलते थे। उस समय कॉलेज की बहुत सी यादें ताजा हो गईं। पूरी यूनिट ने ये कोशिश की कि एक रियल कॉलेज गैंग जैसा माहौल बने, वही मस्ती, वही एनर्जी। जबकि फिल्म का टोन सीरियस है, लेकिन पर्दे के पीछे हम सब बहुत हंसी-मजाक कर रहे थे। वो मजा अलग ही था।

‘धड़क 2’ जैसे विषयों की बात करें, क्या रियल लाइफ में आपने कभी किसी ऐसे अनुभव के बारे में सुना या देखा है?

मैंने खुद ऐसा अनुभव नहीं किया, लेकिन कई किस्से सुने हैं दोस्तों से, जानने वालों से। जैसे एक बार किसी की शादी में उनके रिश्तेदार नहीं गए, सिर्फ इसलिए कि वो इंटरकास्ट मैरिज थी। उस समय शायद किसी ने ज्यादा सवाल भी नहीं उठाया। बस कहा गया अरे अलाउड नहीं होगा और बात खत्म। लेकिन अब वक्त बदल गया है। अब हम पूछते हैं क्यों अलाउड नहीं होगा? और मुझे लगता है कि ये सवाल उठाना बहुत जरूरी है। यही ‘धड़क 2’ जैसी फिल्मों की जरूरत भी है। क्योंकि हम सोचते हैं कि ऐसी चीजें तो अब नहीं होतीं, लेकिन हकीकत ये है कि आज भी और वो भी सिर्फ गांवों में नहीं बल्कि पढ़े-लिखे शहरों में, ये सब होता है।

फिल्मों को समाज का आइना माना जाता है। आपके हिसाब से क्या फिल्में समाज में कोई सुधार ला सकती हैं?

फिल्में सुधार ला सकती हैं, लेकिन वो कितना असर करती हैं, ये पूरी तरह ऑडियंस पर निर्भर करता है। फिल्में एक तरह की 'इमोशनल एजुकेशन' होती हैं, वो आपको कुछ महसूस कराती हैं, कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं। अब किसी ने अगर 'भाग मिल्खा भाग' देखी और वो इंस्पायर हो गया, तो हो सकता है वो खुद भी कुछ बड़ा करने की ठान ले। लेकिन हर कोई ऐसा नहीं करता। कुछ लोग फिल्म देख के भी कुछ नहीं बदलते। तो ये बदलाव पूरी तरह एक इंसान की पर्सनल चॉइस होती है उसे क्या अपनाना है, क्या सीखना है, ये वही तय करता है। फिल्में सिर्फ एक रास्ता दिखा सकती हैं।

ऐसा कौन सा पल था जब आपको लगा कि आपकी जिंदगी सच में बदल गई है?

मेरे लिए वो पल तब आया जब 'बुलबुल' रिलीज हुई। इससे पहले मैंने 'लैला मजनू' की थी, जिसमें हमने बहुत मेहनत की थी, लेकिन उसे उतनी पहचान नहीं मिली। उस समय थोड़ी निराशा हुई थी, लेकिन जब 'बुलबुल' आई और वो भी लॉकडाउन के समय तो बहुत लोगों ने वो फिल्म देखी और मुझे एक एक्ट्रेस के तौर पर नोटिस किया। लोगों ने मेरे काम के बारे में बात करनी शुरू की। उस समय मुझे एक कॉन्फिडेंस मिला कि शायद मैं सही डायरेक्शन में जा रही हूं और मुझे ये काम करते रहना चाहिए। अगर 'बुलबुल' भी नहीं चलती, तो शायद मैं और निराश हो जाती। फिर 'कला' आई और धीरे-धीरे सब बदलता गया।

फिल्मों से अलग पर्सनल जीवन में कोई ऐसा सपना है जो आप जरूर पूरा करना चाहती हैं?

मुझे ट्रैवेलिंग का बहुत शौक है। जैसे ही काम से थोड़ा ब्रेक मिलता है, मैं कोशिश करती हूं कहीं न कहीं घूमने निकल जाऊं। नई जगहों पर जाकर लोगों से मिलना, उनकी जिंदगी को करीब से समझना मुझे बेहद पसंद है। कई बार वहीं से कुछ छोटे-छोटे हाव-भाव या इमोशन्स मिल जाते हैं जो किसी किरदार में जान डाल सकते हैं। जैसे अगर आप उत्तराखंड जाएं, तो वहां की भाषा, बर्ताव, सोच सब कुछ दिल्ली या मुंबई से अलग होता है। एक एक्टर के तौर पर ये सारी चीजें अंदर जमा होती रहती हैं।